Monday, December 03, 2007

बालम आन बसो मेरे मन में......



बहुत दिन बीत गये थे कुछ लिखा नही था, तो सोचा चलो कुछ लिखा जाये और कुछ सुनाया भी जाये, समीर लाल जी धन्यवाद, ये सुनाना आपके प्रोत्साहन के कारण हो रहा है ,
आज जो मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ, वह गीत मूल रूप में के. ऎल. सह्गल साहब ने गाया था। यह गीत फिल्म देवदास (1935) से है, और राग सिन्दूरा पर आधारित है। इस बन्दिश/गीत को मैने पहली पार, लता जी के एक कैसेट श्रद्धाजंलि में सुना था, और इस गीत को कुछ उसी तरह से गाने की कोशिश की है, गीत के बोल हैं ...........

बालम आन बसो मेरे मन में,
सावन आया अजहूँ ना आये,
तुम बिन रसिया कुछ ना भाये,
मन में मोरे हूक उठत जब,
कोयल कूकत बन में,
बालम आन बसो मेरे मन में।


सूरतिया जाकि मतवारी,
एक नया संसार बसा है,
जिनके दो नयनन मे,
बालम आन बसो मेरे मन में।

गीत के बोल और लताजी ने इसे जिस तरह से गाया था, पहली बार ही यह मेरे मन में एकदम बस सा गया था, और मैने इसे सीखा, और बहुत बार अपने परिजनों और मित्रों को सुना के तालिया और वाहवाही भी लूटी।
लीजिये मेरी (अभिषेक) की आवाज़ मे सुनिये बालम आन बसो मेरे मन में,,,,,,,,, और बताइये क्या मै आपके मन में कुछ ज़गह बना पाया ।


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Sunday, October 21, 2007

कुछ चित्र मेरी हिमांचल यात्रा से ....

मैकलोएड गंज से पर्वत मालाओ का द्श्य
नामग्याल बौद्ध मन्दिर का द्श्य - बौद्ध भिक्षु शास्त्रार्थ करते हुए ।
मै भागसुनाथ झरने पर अपने चित्र के लिये प्रस्तुत :)
मन्दिर के प्रार्थना चक्र
कांगडा घाटी - यात्रा के दौरान एक मोड पर घाटी का द्श्य
भागसुनाथ झरना - दूर पानी की धारा आप देख रहे है ..?
भागसुनाथ झरना
कुछ बौद्ध भिक्षु जलपान ग्रहण करते हुए - - दूर से मैने उन्हे अपने कैमरे में कैद कर लिया :)

Friday, July 20, 2007

रेसिडेंसी - लखनऊ


आज सुबह जल्दी उठ गया था तो सोचा चलो कहीं घूम कर आता हूँ ,घर के कुछ दूर ही इमामबाड़ा है और उसके आगे शहीद स्मारक और उसी के पास रेसिडेंसी, बस मन ने कहा चलो आज फिर से वहीं,,,,,,,,,
आप सोच सकते हैं, कि यह फिर से का क्या माज़रा है, बचपन में मै अपनी बुआ के घर पर रह्ता था और उनके घर से रेसिडेंसी पास पडता था तो मेरी सुबह की सैर वहीं हुआ करती थी, और यही नहीं मेरा विद्यालय रेसिडेंसी के एकदम पीछे पडता था तो मेरी खाली कक्षाए वहीं बीता करती थीं, बाद में जब मै अपने घर पर आ गया तो रेसिडेंसी के घर से दूर होने के कारण, और प्रमुखतया सुबह देर से उठने के कारण मेरा सुबह टहलना बन्द हो गया। पर ना जाने आज कहाँ से मेरी नींद जल्दी खुल गयी, और मै चल पडा फिर से रेसिडेंसी की तरफ ………..(अपना कैमरा उठा कर J)।

रेसिडेंसी वर्तमान में एक राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक है, और लखनऊ वालों के लिये सुबह की सैर का स्थान। रेसिडेंसी का निर्माण लखनऊ के समकालीन नवाब आसिफ उद्दौला ने सन 1780 में प्रारम्भ करवाया था जिसे बाद में नवाब सआदत अली द्वारा सन 1800 में पूरा करावाया। रेसिडेंसी अवध प्रांत की राजधानी लखनऊ में रह रहे, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंम्पनी के अधिकारियों का निवास स्थान हुआ करता थी।


रेसिडेंसी - मानचित्र

सम्पूर्ण परिसर मे प्रमुखतया पाँच-छह भवन थे,जिनमें मुख्य भवन,बेंक्वेट हाल,डाक्टर फेयरर का घर, बेगम कोठी ,बेगम कोठी के पास एक मस्जिद, ट्रेज़री आदि प्रमुख थे।
आज इन इमारतों के भग्नावषेश देख कर लगता है कि अभी भी ये अपने बीते हुए भव्य दिनों की याद किया करते हैँ। यहाँ जब भी मैँ आता हूँ वे पुराने दिन दिन कैसे रहे होंगे सोचने लग जाता हूँ। यहाँ की एक एक इमारत से समय का कितना पुराना सम्बन्ध है यह तो बस हम सिर्फ सोच ही सकते हैँ।



Friday, June 15, 2007

मेरा लखनऊ कभी ऐसा था......

कैसरबाग का भव्य दृश्य
दिलकुशा महल – जहाँ अवध के रियासतदार एवँ नवाब रहा करते थे।
लामार्टिनियर स्कूल – कभी क्लाड मार्टिन का घर
छतर मंज़िल
छोटा इमामबारा

Friday, May 04, 2007

मेरी बगिया के फूल

मुझे बागवानी का बहुत शौक है,और कोशिश कर के कुछ समय अपनी बगिया को जरूर देता हूँ,इस बार जाडे में पूरी फुलवारी मेरी और मेरे पिता जी की मेहनत से खूब खिली थी, उनके रंग आप नीचे चित्रों में देख रहे होंगे।
अब जब बात हुइ है फूल की तो कांटे को कैसे भूला जा सकता है और इसे अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'जी से अच्छा कौन समझ सकता है,उन्ही की एक कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है।

फूल और काँटा
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

हैं जन्म लेते जगह में एक ही।
एक ही पौधा उन्हें है पालता।।
रात में उन पर चमकता चाँद भी।
एक ही सी चाँदनी है डालता।।

मेह उन पर है बरसता एक सा।
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं।।
पर सदा ही यह दिखाता है हमें।
ढंग उनके एक से होते नहीं।।

छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ।
फाड़ देता है किसी का वर वसन।।
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर।
भँवर का है भेद देता श्याम तन।।

फूल लेकर तितलियों को गोद में।
भँवर को अपना अनूठा रस पिला।।
निज सुगन्धों और निराले ढंग से।
है सदा देता कली का जी खिला।।

है खटकता एक सबकी आँख में।
दूसरा है सोहता सुर शीश पर।।
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे।
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।।

(मेरी फुलवारी के कुछ फूल कैमरे की नज़र से)






फूलों की बातों से जगजीत सिंह की एक गजल "फूलों की तरह" याद आ गयी,मै तो अभी सुन रहा हूँ, लीजिये आप भी सुनिये और बताइये आपने क्या मह्सूस किया।


Saturday, April 28, 2007

कुछ इस तरह - दूरी -आतिफ असलम

आतिफ असलम के "दूरी" एल्बम से यह गीत, उम्मीद करता हूँ, आप सभी पसन्द करेंगे।
जल्दी ही आप सब के समक्ष फिर से आऊंगा।
अभिषेक

04 - Kuch Is Tara...