Friday, May 04, 2007

मेरी बगिया के फूल

मुझे बागवानी का बहुत शौक है,और कोशिश कर के कुछ समय अपनी बगिया को जरूर देता हूँ,इस बार जाडे में पूरी फुलवारी मेरी और मेरे पिता जी की मेहनत से खूब खिली थी, उनके रंग आप नीचे चित्रों में देख रहे होंगे।
अब जब बात हुइ है फूल की तो कांटे को कैसे भूला जा सकता है और इसे अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'जी से अच्छा कौन समझ सकता है,उन्ही की एक कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है।

फूल और काँटा
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

हैं जन्म लेते जगह में एक ही।
एक ही पौधा उन्हें है पालता।।
रात में उन पर चमकता चाँद भी।
एक ही सी चाँदनी है डालता।।

मेह उन पर है बरसता एक सा।
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं।।
पर सदा ही यह दिखाता है हमें।
ढंग उनके एक से होते नहीं।।

छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ।
फाड़ देता है किसी का वर वसन।।
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर।
भँवर का है भेद देता श्याम तन।।

फूल लेकर तितलियों को गोद में।
भँवर को अपना अनूठा रस पिला।।
निज सुगन्धों और निराले ढंग से।
है सदा देता कली का जी खिला।।

है खटकता एक सबकी आँख में।
दूसरा है सोहता सुर शीश पर।।
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे।
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।।

(मेरी फुलवारी के कुछ फूल कैमरे की नज़र से)






फूलों की बातों से जगजीत सिंह की एक गजल "फूलों की तरह" याद आ गयी,मै तो अभी सुन रहा हूँ, लीजिये आप भी सुनिये और बताइये आपने क्या मह्सूस किया।